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स्वयं धरा पुकारती (कविता) Editior's Choice

प्रचण्ड चण्ड है पवन,
बनी है अग्नि ज्वाल सी।
धधक उठी है ये धरा,
भुजंग के कराल सी।

प्ररोह नव हैं सो गए,
वो मार्तंड तेज़ से।
हैं रौद्र रूप में सुमन,
वो खो गए हैं सेज से।

थे करते थे वे गूँजना,
जहाँ भ्रमर सुगंध वश।
जहाँ कँवल की पंखुड़ी,
छिपाती थी वह मधु कलश।

जहाँ द्रुमों की आड़ में,
वो पंक्षियों का नीड़ था।
हैं कट गए वो द्रुम यहाँ,
जो कल यहाँ प्रवीण था।

धरा की ओढ़नी स्वयं,
है मिट गई उजाड़ से।
वो पर्वतों के शीश भी,
हैं झुक गए प्रहार से।

गगन जो कांतियुक्त था,
गगन वो कांतिहीन है।
सरित् की धार थी सलिल,
वो आज जलविहीन है।

है रो रहा है वह गगन,
है रो रही सकल धरा।
हैं मेघ भी शिथिल हुए,
जो सींचते थे कल धरा।

हे! मनुज धरा का क्यों,
ये तन प्रचण्ड कर दिया।
क्यों आत्मपूर्ति हेतु ही,
है खण्ड-खण्ड कर दिया।

ले अश्रुओं की धार वह,
स्वयं धरा पुकारती।
अभी अधर्म रोक दो,
स्वयं मनुज निहारती।


लेखन तिथि : 5 जून, 2022
            

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