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तापत्रय (लघुकथा)

सरकारी कार्यालय यानि सार्वजनिक स्थल। उसमें अप्रतिम सौंदर्य था। वह आशुलिपिक थी। वहाँ तरह तरह के लोग आते थे। कुछ की निगाहें उसके तन को भीतर तक भेद जातीं थीं। कुछ का वक्षस्थल की ओर ध्यान चला जाता था। कुछ उसके ख़ूबसूरत चेहरे को ताकते रह जाते थे। कुछ उसके रूप पर लुब्ध थे। यानि वहाँ आने वाले लोग तापत्रय थे। लेकिन उनके ये क्रिया कलाप अप्रमेय थे। उनमें से कुछ दुराग्रही और दुरभिसंधि वाले थे। कार्यालय के साथ साथ यह भी एक दिनचर्या थी।

वह अपने सहकर्मियों के बीच चर्चा का विषय रहती थी। कुछ लोग इसे उसके चरित्र का कच्चा चिट्ठा मानते थे। यानि उन लोगों के बीच उसका चरित्र अनावृत था। लेकिन दक़ियानूसी लोगों के लिए संदेहास्पद था।

जबकि उसका स्वभाव दुर्ज्ञेय था और बाह्य संसार के मामले में अलोकज्ञ था।

रोज़ की तरह आज भी उसने आले में रखे भगवान की पूजा अर्चना की। मन ही मन बुदबुदाई कि "हे भगवन् बुद्धि, ज्ञान, और विवेक देना। मार्ग दर्शन करना। सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना।" उसने अपना बैग उठाया और कार्यालय की ओर चल पड़ी।

उसकी दैनिक दिनचर्या प्रारंभ हो चुकी थी।


लेखन तिथि : 2019
            

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