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तुलसी विवाह (कविता)

एक रूप लिया वृंदा का, दूसरे रूप में बनी नदी पदमा,
वृंदा ने सहे कष्ट अतिरेक, संसार का उद्धार करने उतरी पदमा।
पाकर श्राप गंगा माँ से, श्री ने लिए दो दो रूप,
लक्ष्मी ही थी वृंदा, और थी पदमा अभिरूप।

मय दानव की पुत्री बनकर, वृंदा ने लिया जन्म धरा पर,
हरि का ही अवतार था जो, बना वृंदा का पति जालंधर।
जालंधर दानव था अत्याचारी, मचा रहा था जग में संत्रास,
वृंदा थी बड़ी पतिवृता, दिलाया पति को सतीत्व पर विश्वास।

मिलता साहस सतीत्व का, जालंधर को न था प्राणो का डर,
हरि ने तब रचाया षड़यंत्र, जालंधर बन वृंदा का सतीत्व लिया हर।
हरि की इस करतूत पर, वृंदा को हुआ संताप,
दे डाला उसने तब, नारायण को ही अभिशाप।

कहा उसने नारायण प्रभु से, "किया आपने यह बड़ा ही पाप",
"पत्थर बन जाए ख़ुद हरि", दे डाला वृंदा ने यह अभिशाप।
हरि ने तब वृंदा को, बात पूरी तरह समझाई,
कहा "तू तो है लक्ष्मी का अवतार, तुम क्यों घबराई"।

वृंदा की श्रद्धा भक्ति से, प्रभु हुए बड़े ही प्रसन्न,
स्वीकार किया वृंदा के श्राप को, बन गए पत्थर उसी क्षण।
वृंदा बन गई तुलसी का पौधा, हरि बने पाषाण,
ब्याह रचाए कार्तिक शुक्ल एकादशी को, तुलसी संग शालीग्राम।


लेखन तिथि : 15 नवम्बर, 2021
            

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