तुम्हारी तारीफ़ों के पुल नहीं बाँधूँगा।
ज़ुल्फ़ों को घटाएँ,
आँखों को झीलें,
होटों को कलियाँ,
नदियों सी चाल, नहीं कहूँगा।
न ही खिचूँगा तुम्हारी नयनाभिराम
मुस्कान का चित्र,
क्योंकि ये प्रतिमान सारे लगते हैं
पुराने और बड़े विचित्र।
बस्स! मैं कहूँगा
अपने प्रिय कवि 'विद्रोही जी' की कविता का
कुछ अंश–
“मैं तुम्हें देखता हूँ तो लगता है
क्रांति होगी।”
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