देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन

तुम्हें लिखना चाहा (कविता) Editior's Choice

मैंने जितनी बार,
तुम्हें लिखना चाहा।
मेरी लेखनी के पाँव,
धँस गए शब्दों के दलदल में।
अन्यमनस्क;
भ्रमित पथिक की भाँति,
घूमता रहा कल्पना लोक में।
मेरे शब्द,
जिन्हें उतारना चाहा भविष्य के पन्नों पर।
डूब गए, झील सी तुम्हारी आँखों में,
जिन्हें पाना अप्राप्य था।
तुम्हारे मधुर स्वर,
जिन्हें सुर देना चाहा।
घुल गए अन्नत आकाश में।
जो पक्षियों के कलरव के रूप में,
गुंजने लगे, मेरी कानों में।
तुम्हारी सुंदर छवि,
जो बसी है मेरी आँखों में।
उकेरना चाहा आकाश पृष्ठ पर,
सभी रंग मिल गए;
और बादलों में इंद्रधनुष बन गया।
मेरी जीवन की रिक्तता,
पूर्ण हुई तुम्हें पाकर।
जीवन की भुलभुलैया,
विश्राम पाई तुम्हारी आँचल में।
एक मधुर स्वप्न;
जो पल रहा था शताब्दियों से हृदय में।
उसकी परिणति,
हुई तुम्हारी स्वीकृति से।
बसंत लौटा;
पुनः जीवन में।
और
सजीवता भरी मेरे तन में।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 13 अक्टूबर, 2022
            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें