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उड़ान (कविता)

काश मैं भी एक पंछी होता,
घोंसले से ही भर लेता उड़ान।
सारी ऊँचाइयों को लेता नाप,
भरता मैं हौसलों की उड़ान।

हौसले तो तब कम न थे,
बचपन था जब मेरे पास।
हौसले तो तब भी कम न थे,
जवानी में थी जब उड़ने की प्यास।

बचपन से लेकर जवानी तक,
सफ़र एक लंबा तय किया मैने।
सपने कई हुए पूरे मेरे,
पर रह गए अधूरे कई सपने।

हौसले तो थे पर कठिनाइयाँ भी थी,
जज़्बे थे पर मुश्किलें भी बहुत थी।
कोशिश भी की थी मैंने बहुत मगर,
हौसला-अफ़ज़ाई भी कम बहुत थी।

अपने हौसलों से पहुँचा यहाँ तक,
क़दम गिरते संभलते रहें।
राह में बाधाएँ आई अनेक,
पर क़दम आगे ही बढ़ते रहें।

बुढ़ापे के ओर बढ़ रहा जीवन,
पर हौसले हैं अब भी जवान।
जज़्बा जगा एक नया मन में,
भर लूँ मैं भी हौसलों की उड़ान।

निकला हूँ फिर एक बार,
थाम कर सपनों की कमान।
उड़ जाऊँ मैं हौसलों के संग,
भरूँ बाँहों में सारा जहान।

हौसलों का बना कर बादल,
बैठ जाऊँ सपनों के साथ।
उड़ चलूँ ऊँचे आसमाँ तक,
थाम कर हौसलों का हाथ।

निकल पड़ा मैं ज़िंदगी की राह पर,
राह में तकलीफ़ें बहुत थी।
मंज़िल नहीं दिखी दूर दूर तक,
पर हौसलों की तासीर बहुत थी।

उड़ना फिर सीख लिया मैने,
हौसलों ने फिर भरी उड़ान।
फैलाता रहा मैं मन के पंख,
सपनों को मिल गया सोपान।

जी ली ज़िंदगी फिर से मैंने,
पूरे किए सब अधूरे सपने।
जीवन के हुए पूरे सब अरमान,
जी लिए मैंने सब पल अपने।

ज़िंदगी की इस यात्रा में,
सीखी यही एक सही बात।
डगर कठिन हो भले ही,
उड़ना सदा ही हौसलों के साथ।

पूरे होंगे अपने सारे सपने,
अगर उड़ोगे हौसलों के संग।
राह होगी जीवन की आसान,
जी सकोगे ज़िंदगी के रंग।


लेखन तिथि : 19 जुलाई, 2021
            

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