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वसंत के नाम पर (कविता) Editior's Choice

(1)
प्रात जगाता शिशु वसंत को नव गुलाब दे-दे ताली;
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।
सुंदरता को जगी देखकर जी करता मैं भी कुछ गाऊँ;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में निज कविता के दीप जलाऊँ।
ठोकर मार भाग्य को फोड़ें, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊँ;
उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊँ।
स्वप्न-बीच जो कुछ सुंदर हो, उसे सत्य में व्याप्त करूँ,
और सत्य-तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।

(2)
क़लम उठी कविता लिखने को, अंत:स्तल में ज्वार उठा रे!
सहसा नाम पकड़ कायर का पश्चिम-पवन पुकार उठा रे!
देखा, शून्य कुँवर का गढ़ है, झाँसी की वह शान नहीं है।
दुर्गादास-प्रताप बली का प्यारा राजस्थान नहीं है।
जलती नहीं चिता जौहर की, मुट्ठी में बलिदान नहीं है।
टेढ़ी मूँछ लिए रण-वन फिरना अब तो आसान नहीं है।
समय माँगता मूल्य मुक्ति का, देगा कौन मांस की बोटी?
पर्वत पर आर्दश मिलेगा, खाएँ चलो घास की रोटी।
चढ़े अश्व पर सेंक रहे रोटी नीचे कर भालों को,
खोज रहा मेवाड़ आज फिर उन अल्हड़ मतवालों को।

(3)
बात-बात पर बजीं किरीचें, जूझ मरे क्षत्रिय खेतों में;
जौहर की जलती चिनगारी अब भी चमक रही रेतों में।
जाग-जाग ओ धार, बता दे, कण-कण चमक रहा क्यों तेरा?
बता रंचभर ठौर कहाँ वह, जिस पर शोणित बहा न मेरा?
पी-पी ख़ून आग बढ़ती थी, सदियों जली होम की ज्वाला।
हँस-हँस चढ़े सीस साकल-से, बलिदानों का हुआ उजाला।
सुंदरियों को सौंप अग्नि पर, निकले समय-पुकारों पर।
बाल, वृद्ध औ' तरुण विहँसते खेल गए तलवारों पर।

(4)
हाँ, वसंत की सरस घड़ी है, जी करता, मैं भी कुछ गाऊँ;
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में, निज कविता के दीप जलाऊँ।
क्या गाऊँ? सतलज रोती है, हाय! खिली बेलियाँ किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं, यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे।
बहनें चीख़ रहीं रावी-तट, बिलख रहे बच्चे बेचारे,
फूल-फूल से पूछ रहे हैं—'कब लौटेंगे पिता हमारे?'
उफ़, वसंत या मदन-बाण है? वन-वन रूप-ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह-रहकर, यौवन में उभार आया है।
कसक रही सुंदरी—'आज मधु-ऋतु में मेरे कंत कहाँ?'
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती, 'प्यारी, और वसंत कहाँ'?


            

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