नज़र मंज़िल पे है जिनकी,
वो क़दम खुद ही बढ़ाते हैं।
फिर चढ़कर आसमानों पर,
सितारे गढ़ के आते हैं।
चाहे दीवार बनकर मुश्किलें,
लाख फिर रास्ते में आ जाएँ।
बढ़े आगे वो उनका चीरकर सीना,
नहीं एक पल भी घबराएँ।
तुम्हारे दम से ये दुनिया भी
बहुत कुछ सीख जाती है।
बनाकर तुम को फिर आदर्श
प्रेरणा ख़ुद भी पाती है।
सभी युवक समर्पित ख़ुद को
अगर हित राष्ट्र के कर दें।
फिर भारत माँ के आँचल को
अमूल्य निधियों से वो भर दें।
अगर फिर ज्ञान का वर्तुल भी
दीर्घाकार हो जाए।
समझो विवेकानंद का सपना
भी फिर साकार हो जाए।
नैतिकता, सदाचारी से हरदम
प्रीत तुम करना।
यही मानव का आभूषण,
न इनको दूर तुम करना।
कहीं हो जाए गर तुमको
कभी अवसाद, मत डरना।
मेरी कविता के भावों से,
सार्थक संवाद तुम करना।
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