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व्यथा (कविता)

रसोई घर मे चल रहा, दाल-प्याज संवाद,
प्याज ने पूछा कहो दाल बहन! क्या हाल?
सुना है कि तुम वी॰वी॰आई॰ई॰ हो गई हो,
आम आदमी की थाली से दूर हो गई हो।

सुन कर प्याज का तंज, दाल तिलमिलाई,
वोली तुमने सही सुना है प्यारे प्याज भाई।
नीली छतरी वाले की कृपा से मज़े मे हूँ,
भीड़-भाड़ से दूर, धनकुवेरो के बंगले मे हूँ।

कभी तुम्हारे जलवे और धनिया के तेवर,
आम-जन को सताते, रुदाली बनाते थे।
तब तुम्हें आम आदमी पर दया नही आयी,
जब सब्जी-मंडी से गायव थे तुम प्याज भाई।

तुमने तो अपने दम पर सरकारो को हिलाया,
एक, दो, नही चार सूबे का तख़्ता पलट कराया।
उन दिनों तुम्हारी मानवीय संवेदना कहाँ सोई,
जब गरीव की थाली ने चटनी रूपी सब्जी खोई।

उस समय मुझे अपना सस्ता-पन अखरता था,
मन दुखी रहता था, दिन मे अँधेरा सा लगता था।
आज नमो-कृपा से अपुन के अच्छे दिन आए है,
स्वदेशी विकास की गाड़ी के हम भी एक पाए है।

इस प्रकार चल रहा दाल-प्याज संवाद,
एक दूजे पर कर रहे व्यंग और प्रतिवाद।
जनता व्याकुल हो रही, कहे किसे हाल,
महँगाई की मार से जीवन हुआ बेहाल।

रसोई-घर मे बढ रहा है बजट बहुत भारी,
जनता की थाली से गायब कैलोरी है सारी।
जन-थाली-क़ीमत पर निज-विकास की बारी,
नेताजी करे द्धन्द क्षूठा, सच स्विस-बैंक तैयारी।।


लेखन तिथि : 12 नवम्बर, 2015
            

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