चीख़ रही धरती।
कौन सुने विनती।।
दोहन शाश्वत है।
जीवन आफ़त है।।
बाढ़ कभी बरपा।
लाँछन ही पनपा।।
मौन रहूँ कितना!
ज़ख़्म नही सहना।।
मानव होश करो।
जीवन जोश भरो।।
वैश्विक ताप तपा।
संकट जीव नपा।।
भौतिक लोभ बढ़ा।
आर्थिक गर्व चढ़ा।।
सागर भी बढ़ता।
रोष कहाँ मढ़ता।।
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