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कविता

एक वृक्ष भी बचा रहे
नरेश सक्सेना
अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ एक वृक्ष जाएगा अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर साथ जाएगा एक वृक्ष अग्नि में प�
पानी क्या कर रहा है
नरेश सक्सेना
आज जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड और पानी पीना तो दूर उसे छूने तक से बच रहे हैं लोग तो ज़रा चल कर देख लेना चाहिए कि अपने �
लौटकर जब आऊँगा
अशोक वाजपेयी
माँ, लौटकर जब आऊँगा क्या लाऊँगा? यात्रा के बाद की थकान, सूटकेस में घर-भर के लिए कपड़े, मिठाइयाँ, खिलौने, बड़ी होती ब�
प्रार्थना और चीख़ के बीच
अशोक वाजपेयी
जहाँ तुम थीं अपने नाचते शरीर से अंतरिक्ष को प्रेम जैसे एक संक्षिप्त अनंत में ढालते हुए वहाँ क्या मैं रख सकता हूँ श
अवसाद
अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श'
जैसे सांध्य की लालिमा जल में समा जाती है, हर आकांक्षा, हर स्वप्न, तृण-तुल्य हो बिखर गया है। आशा, जो कभी जीवन की संपदा �
चुका भी हूँ मैं नहीं
शमशेर बहादुर सिंह
चुका भी हूँ मैं नहीं कहाँ किया मैंने प्रेम अभी। जब करूँगा प्रेम पिघल उठेंगे युगों के भूधर उफन उठेंगे सात सागर। �
रात्रि
शमशेर बहादुर सिंह
(1) मैं मींच कर आँखें कि जैसे क्षितिज तुमको खोजता हूँ। (2) ओ हमारे साँस के सूर्य! साँस की गंगा अनवरत बह रही है। तुम कह
तुमने मुझे
शमशेर बहादुर सिंह
तुमने मुझे और गूँगा बना दिया एक ही सुनहरी आभा-सी सब चीज़ों पर छा गई मै और भी अकेला हो गया तुम्हारे साथ गहरे उतरने �
बात बोलेगी
शमशेर बहादुर सिंह
बात बोलेगी, हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही। सत्य का मुख झूठ की आँखें क्या— —देखें! सत्य का रुख़ समय का रुख़ है ׃ अभय जन�
काल, तुझसे होड़ है मेरी
शमशेर बहादुर सिंह
काल, तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ सीधा तीर-सा, जो �
सींग और नाख़ून
शमशेर बहादुर सिंह
सींग और नाख़ून लोहे के बक्तर कंधों पर। सीने में सूराख़ हड्डी का। आँखों में ׃ घास-काई की नमी। एक मुर्दा हाथ पाँव प�
वाम वाम वाम दिशा
शमशेर बहादुर सिंह
वाम वाम वाम दिशा, समय साम्यवादी। पृष्ठभूमि का विरोध अंधकार-लीन। व्यक्त... कुहाऽस्पष्ट हृदय-भार, आज हीन। हीनभाव, ही�
एक पीली शाम
शमशेर बहादुर सिंह
एक पीली शाम पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता शांत मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल कृश म्लान हारा-सा (कि मैं हूँ वह मौन
प्रेम
शमशेर बहादुर सिंह
द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास फिर भी मैं करता हूँ प्यार रूप नहीं कुछ मेरे पास फिर भी मैं करता हूँ प्यार सांसारिक व्यवहा
एक ठोस बदन अष्टधातु का-सा
शमशेर बहादुर सिंह
एक ठोस बदन अष्टधातु का-सा सचमुच? जंघाएँ दो ठोस दरिया ठै रे हुए-से मगर जानता हूँ कि वो बराबर-बराबर बहुत तेज़ रौ में �
लेकर सीधा नारा
शमशेर बहादुर सिंह
लेकर सीधा नारा कौन पुकारा अंतिम आशाओं की संध्याओं से? पलकें डूबी ही-सी थीं— पर अभी नहीं; कोई सुनता-सा था मुझे कहीं
ओ मेरे घर
शमशेर बहादुर सिंह
ओ मेरे घर ओ हे मेरी पृथ्वी साँस के एवज़ तूने क्या दिया मुझे —ओ मेरी माँ? तूने युद्ध ही मुझे दिया प्रेम ही मुझे दिया
एकाकी वृक्ष का जीवन
जगदीश चतुर्वेदी
झर गए— सपनों के लहलहाते पात अजाने ही झर गए। ऊँची टहनी पर केवल एक पत्ती बच रही है। कब हवा चले? कब काल के अनगढ़ हाथो�
स्मृति का एक टुकड़ा
जगदीश चतुर्वेदी
कल रात दरिया किनारे तुमने अपने मुलायम हाथ मेरे कंधों पर रख दिए थे चाँदनी की दूधिया सफ़ेदी मुस्कुराई दूब पर बिखर
रिक्तता का बोध
जगदीश चतुर्वेदी
सूर्य का रथ छिप गया नभ में, मोरपंखी कल्पनाओं को लिए घिर गई फिर से साँझ! साँझ— कितनी शांत, स्निग्धा साँझ! ज्यों, दिव
आस्था का अवशेष
जगदीश चतुर्वेदी
गुलमोहरों की बेलें मुरझा गईं— शायद, तुसने विश्वास की कत्थई कमरी को फाड़ दिया! सच—? सुबह, लँगड़ी हवा बपतिस्मा पढ�
ध्वंस
जगदीश चतुर्वेदी
एक आकाश को भरकर बाज़ुओं में उछालता हूँ किलकारी के साथ ज्वालामुखी-सा धधकता हूँ लावे से सराबोर और कौमार्य-भंग की अतृ
भारत-धरनि
श्रीधर पाठक
(1) बंदहुँ मातृ-भारत-धरनि सकल-जग-सुख-श्रैनि, सुखमा-सुमति-संपति-सरनि (2) ज्ञान-धन, विज्ञान-धन-निधि, प्रेम-निर्झर-झरनि त�
स्मरणीय भाव
श्रीधर पाठक
वंदनीय वह देश, जहाँ के देशी निज-अभिमानी हों। बांधवता में बँधे परस्पर, परता के अज्ञानी हों। निंदनीय वह देश, जहाँ के द
भारत-श्री
श्रीधर पाठक
जय जय जगमगित जोति, भारत भुवि श्री उदोति कोटि चंद मंद होत, जग-उजासिनी निरखत उपजत विनोद, उमगत आनँद-पयोद सज्जन-गन-मन-कम�
हिंद-वंदना
श्रीधर पाठक
जय देश हिंद, जय देशेश हिंद जय सुखमा-सुख नि:शेष हिंद जय धन-वैभव-गुण खान हिंद विद्या-बल-बद्धि निधान हिंद जय चंद्र-चंद्
उठो भई उठो
श्रीधर पाठक
हुआ सवेरा जागो भैया, खड़ी पुकारे प्यारी मैया। हुआ उजाला छिप गए तारे, उठो मेरे नयनों के तारे। चिड़िया फुर-फुर फिरती
मनू जी
श्रीधर पाठक
मनू जी तुमने यह क्या किया? किसी को पौन, किसी को पूरा, किसी को आधा दिया सरस प्रीति के थल में बोया बिस-अनीति का बिया लु�
सुंदर भारत
श्रीधर पाठक
(1) भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है शुचि भाल पै हिमाचल, चरणों पै सिंधु-अंचल उर पर विशाल-सरिता-सित-हीर-हार-चंचल मणि-ब
निज स्वदेश ही
श्रीधर पाठक
निज स्वदेश ही एक सर्व-पर ब्रह्म-लोक है। निज स्वदेश ही एक सर्व-पर अमर-ओक है। निज स्वदेश विज्ञान-ज्ञान-आनंद-धाम है। न�

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