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ग़ज़ल

जहाँ-दार पे वार चलने लगा
ख़ालिद महमूद
जहाँ-दार पे वार चलने लगा ग़ुलामों का दरबार चलने लगा अज़ल से किसी शय में गर्दिश न थी चला मैं तो संसार चलने लगा ख़ुद
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं
ख़ालिद महमूद
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं कबूतर भी वही करने लगे जो बाज़ करते हैं वही क़िस्से वही बातें कि जो ग़म्माज़
ठंडी ठंडी नर्म हवा का झोंका पीछे छूट गया
ख़ालिद महमूद
ठंडी ठंडी नर्म हवा का झोंका पीछे छूट गया जाने किस वहशत में घर का रस्ता पीछे छूट गया बच्चे मेरी उँगली थामे धीरे धीर�
हर कमंद-ए-हवस से बाहर है
ख़ालिद महमूद
हर कमंद-ए-हवस से बाहर है ताइर-ए-जाँ क़फ़स से बाहर है मौत का एक दिन मुअय्यन है ज़िंदगी दस्तरस से बाहर है क़ाफ़िले म�
मुक़ाबला हो तो सीने पे वार करता है
ख़ालिद महमूद
मुक़ाबला हो तो सीने पे वार करता है वो दुश्मनी भी बड़ी पुर-वक़ार करता है जो हो सके तो उसे मुझ से दूर ही रखिए वो शख़्स
शायद कि मर गया मिरे अंदर का आदमी
ख़ालिद महमूद
शायद कि मर गया मिरे अंदर का आदमी आँखें दिखा रहा है बराबर का आदमी सूरज सितारे कोह ओ समुंदर फ़लक ज़मीं सब एक कर चुका �
रास्ता पुर-ख़ार दिल्ली दूर है
ख़ालिद महमूद
रास्ता पुर-ख़ार दिल्ली दूर है सच कहा है यार दिल्ली दूर है काम दिल्ली के सिवा होते नहीं और ना-हंजार दिल्ली दूर है अ
आँखों में धूप दिल में हरारत लहू की थी
ख़ालिद महमूद
आँखों में धूप दिल में हरारत लहू की थी आतिश जवान था तो क़यामत लहू की थी ज़ख़्मी हुआ बदन तो वतन याद आ गया अपनी गिरह मे�
यहाँ से है कहानी रात वाली
ख़ालिद महमूद
यहाँ से है कहानी रात वाली कि वो इक रात थी बरसात वाली कहा था जो वही कर के दिखाया वो बर्क़-ए-बे-अमाँ थी बात वाली बड़ी �
ख़ता गया जो निशाना कमाँ बदलता है
ख़ालिद महमूद
ख़ता गया जो निशाना कमाँ बदलता है नहीं तमीज़-ए-रिहाइश मकाँ बदलता है कहानी ये थी कि सब साथ मिल के रहते हैं फिर इस के ब'
नहीं है अगर उन में बारिश हवा
ख़ालिद महमूद
नहीं है अगर उन में बारिश हवा उठा बादलों की नुमाइश हवा गहे बर्फ़ है गाह आतिश हवा तुझे क्यूँ है दिल्ली से रंजिश हवा
हर इक फ़ैसला उस ने बेहतर किया
ख़ालिद महमूद
हर इक फ़ैसला उस ने बेहतर किया मुझे आँख दी तुम को मंज़र किया दिल-ए-ख़ूँ-चकीदा मुनव्वर किया तो आँखों का सहरा समुंदर क
जीने में थी न नज़अ के रंज ओ मेहन में थी
जगत मोहन लाल रवाँ
जीने में थी न नज़अ के रंज ओ मेहन में थी आशिक़ की एक बात जो दीवाना-पन में थी सादा वरक़ था बाहमा गुल-हा-ए-रंग-रंग तफ़्स�
अंजाम ये हुआ है दिल-ए-बे-क़रार का
जगत मोहन लाल रवाँ
अंजाम ये हुआ है दिल-ए-बे-क़रार का थमता नहीं है पाँव हमारे ग़ुबार का पहले किया ख़याल न गुल का न ख़ार का अब दुख रहा है �
निकल जाए यूँही फ़ुर्क़त में दम क्या
जगत मोहन लाल रवाँ
निकल जाए यूँही फ़ुर्क़त में दम क्या न होगा आप का मुझ पर करम क्या हँसे भी रोए भी लेकिन न समझे ख़ुशी क्या चीज़ है दुन�
यूँही गर हर साँस में थोड़ी कमी हो जाएगी
जगत मोहन लाल रवाँ
यूँही गर हर साँस में थोड़ी कमी हो जाएगी ख़त्म रफ़्ता रफ़्ता इक दिन ज़िंदगी हो जाएगी देखने वाले फ़क़त तस्वीर-ए-ज़ा�
राह-ओ-रस्म-ए-इब्तिदाई देख ली
जगत मोहन लाल रवाँ
राह-ओ-रस्म-ए-इब्तिदाई देख ली इंतिहा-ए-बेवफ़ाई देख ली सामने तारीफ़ ग़ीबत में गिला आप के दिल की सफ़ाई देख ली अब नहीं
गुल-ए-वीराना हूँ कोई नहीं है क़द्र-दाँ मेरा
जगत मोहन लाल रवाँ
गुल-ए-वीराना हूँ कोई नहीं है क़द्र-दाँ मेरा तू ही देख ऐ मिरे ख़ल्लाक़ हुस्न-ए-राएगाँ मेरा ये कह कर रूह निकली है तन-ए-�
सब को गुमान भी कि मैं आगाह-ए-राज़ था
जगत मोहन लाल रवाँ
सब को गुमान भी कि मैं आगाह-ए-राज़ था किस दर्जा कामयाब फ़रेब-ए-मजाज़ था मिस्ल-ए-मह-ए-दो-हफ़्ता वही सरफ़राज़ था जिस की
वो ख़ुश हो के मुझ से ख़फ़ा हो गया
जगत मोहन लाल रवाँ
वो ख़ुश हो के मुझ से ख़फ़ा हो गया मुझे क्या उमीदें थीं क्या हो गया नवेद-ए-शफ़ा चारासाज़ों को दो मरज़ अब मिरा ला-दवा �
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए
कैफ़ी आज़मी
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए हम चाँद से आज लौट आए दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं क्या हो गए मेहरबान साए जंगल की हवाएँ आ �
सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने
कैफ़ी आज़मी
सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालो है�
इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े
कैफ़ी आज़मी
इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं
कैफ़ी आज़मी
झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के ब�
आज सोचा तो आँसू भर आए
कैफ़ी आज़मी
आज सोचा तो आँसू भर आए मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए हर क़दम पर उधर मुड़ के देखा उन की महफ़िल से हम उठ तो आए रह गई ज़िंद�
मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली
कैफ़ी आज़मी
मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली इसी तरह से बसर हम ने ज़िंदगी कर ली अब आगे जो भी हो अंजाम देखा जाएगा ख़ुदा तलाश ल
की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ
कैफ़ी आज़मी
की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ थोड़ा सा प्यार भी मुझे दे दो सज़ा के साथ गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूब�
मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
कैफ़ी आज़मी
मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए नए बशर का कहीं क
हाथ आ कर लगा गया कोई
कैफ़ी आज़मी
हाथ आ कर लगा गया कोई मेरा छप्पर उठा गया कोई लग गया इक मशीन में मैं भी शहर में ले के आ गया कोई मैं खड़ा था कि पीठ पर मे
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
अहमद फ़राज़
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी त�

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