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नज़्म
कहो जो है दिल में बात
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
कहो जो है दिल में बात, उनके पयाम से पहले, मत सोचो मोहब्बत में कुछ भी अंजाम से पहले। दिल की बात दिल में न रह जाए हसरत बन�
आख़िरी रात
कैफ़ी आज़मी
चाँद टूटा पिघल गए तारे क़तरा क़तरा टपक रही है रात पलकें आँखों पे झुकती आती हैं अँखड़ियों में खटक रही है रात आज छेड�
नई सुब्ह
कैफ़ी आज़मी
ये सेहहत-बख़्श तड़का ये सहर की जल्वा-सामानी उफ़ुक़ सारा बना जाता है दामान-ए-चमन जैसे छलकती रौशनी तारीकियों पे छाई �
पशेमानी
कैफ़ी आज़मी
मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को हवाओं में लहराता आता था दामन कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी
दाएरा
कैफ़ी आज़मी
रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़
मकान
कैफ़ी आज़मी
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की �
एक लम्हा!
कैफ़ी आज़मी
ज़िंदगी नाम है कुछ लम्हों का और उन में भी वही इक लम्हा जिस में दो बोलती आँखें चाय की प्याली से जब उट्ठीं तो दिल में �
हमदर्द
अहमद फ़राज़
ऐ दिल उन आँखों पर न जा जिन में वफ़ूर-ए-रंज से कुछ देर को तेरे लिए आँसू अगर लहरा गए ये चंद लम्हों की चमक जो तुझ को पागल
भली सी एक शक्ल थी
अहमद फ़राज़
भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे �
वापसी
अहमद फ़राज़
उस ने कहा सुन अहद निभाने की ख़ातिर मत आना अहद निभाने वाले अक्सर मजबूरी या महजूरी की थकन से लौटा करते हैं तुम जाओ औ�
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है, मेहनत कशी से वक्त फिर उनको बदलते देखा है। ये राह आसाँ तो नहीं पर लेना �
मंज़िल पर हूँ
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मंज़िल पर हूँ, पैरो को अब और चलने की ज़रूरत ना रही, दिल में इस तरह से बसे हो कि मन्दिर में तेरी मूरत ना रही। फ़लक़, पंछी, ये �
वक़्त यूँ ज़ाया न कर
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मसर्रतों की तलाश में अपनों से ख़ुद को यूँ पराया न कर, बेशक़ गर्दिश भरा है सफ़र, तू चल वक़्त यूँ ज़ाया न कर। हाँ, मिल ही जाए�
तुम्हारा शहर
अली सरदार जाफ़री
तुम्हारा शहर तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से महक रहा था, हर इक बाम तुम से रौशन था हवा तुम्हारी तरह हर रविश पे चलती थी तु�
चिड़िया-ख़ाना
फ़राग़ रोहवी
नजमी फ़हमी उज़मा राना आओ देखें चिड़िया-ख़ाना जिन के नाम सुना करते हो आज उन्हें नज़दीक से देखो एक से एक परिंदे दे�
नया दिन
निदा फ़ाज़ली
सूरज! इक नट-खट बालक-सा दिन भर शोर मचाए इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे किरनों को छितराए क़लम दरांती ब्रश हथौड़ा जगह जग
एक चिड़िया
निदा फ़ाज़ली
जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया हरे हरे पत्तों में छप कर गाती है नन्हे नन्हे तीर चलाए जाती है और फिर अपने आप ही
खेलता बच्चा
निदा फ़ाज़ली
घास पर खेलता है इक बच्चा पास माँ बैठी मुस्कुराती है मुझ को हैरत है जाने क्यूँ दुनिया काबा ओ सोमनात जाती है
इंतिज़ार
निदा फ़ाज़ली
मुद्दतें बीत गईं तुम नहीं आईं अब तक रोज़ सूरज के बयाबाँ में भटकती है हयात चाँद के ग़ार में थक-हार के सो जाती है रा
ग़ालिब
जयंत परमार
जब भी तुझको पढ़ता हूँ लफ़्ज़-लफ़्ज़ से गोया आसमाँ खिला देखूँ एक-एक मिसरे में कायनात का साया फैलता हुआ देखूँ!
पतंग
जयंत परमार
कभी कभी मन करता है पतंग बन कर आसमान में उड़ने का घर की टूटी छत पे चढ़ कर देखता हूँ रंग-बिरंगी कई पतंगें लेकिन नीले �
घर की याद
जयंत परमार
लौट रहा था फूलों की घाटी से जब सवार था मैं जिस घोड़े पर वो लुढका मैं ने सोचा उसे भी शायद घर की याद ने घेर लिया है!
एक सितारा टूट गिरा था
जयंत परमार
ख़्वाबों की सरहद पे नीला नीला एक समुंदर तेरी आँखों जैसा लहरों के नेज़ों पे बहती जगमग जगमग चाँद सी रौशन अपने प्य�
कोशिश
जयंत परमार
कई दिनों से मेरे सर में सुब्ह शाम और रात रात भर ना-उम्मीद परिंदे उड़ते रहते हैं उन्हें रोकना मुश्किल है लेकिन अप�
बस
कलीम आजिज़
गए लेटने रात ढलते हुए, उठे सुब्ह को आँख मलते हुए। नहा धो के कपड़े बदलते हुए, उठाई किताब और चलते हुए। सवेरे का जब तक
अख़बार
गुलज़ार
सारा दिन मैं ख़ून में लत-पत रहता हूँ सारे दिन में सूख सूख के काला पड़ जाता है ख़ून पपड़ी सी जम जाती है खुरच खुरच के �
आदत
गुलज़ार
साँस लेना भी कैसी आदत है जिए जाना भी क्या रिवायत है कोई आहट नहीं बदन में कहीं कोई साया नहीं है आँखों में पाँव बेहि
किताबें
गुलज़ार
किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की स�
फ़ज़ा
गुलज़ार
फ़ज़ा ये बूढ़ी लगती है पुराना लगता है मकाँ समुंदरों के पानियों से नील अब उतर चुका हवा के झोंके छूते हैं तो खुरदु�
ग़ालिब
गुलज़ार
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे गुड़गुड़ाती हुई
और देखे..
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