लोग अपनी भाषा में क्या कहते हैं, उसका बहुत अर्थ नहीं मेरे लिए।
जो वे कहते नहीं, मेरे कानों से बच कर निकलता नहीं।
सीखी नहीं,
साध ली जीवन के लिए तरंग की भाषा।
भाषाएँ उपयोग में लाती हूँ केवल कार्यालयीन अनुष्ठान संपन्न करने के लिए।
काट देती हूँ कविता में भाषा, शनिवार के नाख़ून की तरह,
मन से निषेध के दिनों में।
बचपन से लेकर अब तक गिनती के बीस मित्र हुए मेरे।
एक नदी, एक घाट, दो वन, दो सितारे, एक कुत्ता और तेरह मनुष्य।