आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे (ग़ज़ल)

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।

हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में,
गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे।

फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा,
अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे।

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए,
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे।

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ,
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे।

दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को,
सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे।

'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइ'ज़ बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।


रचनाकार : मिर्ज़ा ग़ालिब
  • विषय :
लेखन तिथि : 1816
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