अयाचित अतिथि यह करपात्री है।
किंतु दाता है,
न जाओ किसी के स्वरूप पर।
स्वागत करो,
इस यायावरी, संकीर्तन करती हुई
असंग वैष्णवता का स्वागत करो
आँगन को बुहारो मत
कल ही
कीर्तन-पुरुष के ये पदचिह्न
द्वार के स्वस्तिक कहलाएँगे।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है।
आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।