आज परिणति पा रहे हैं जन्म जन्मांतर!
यह युगांतर है, न क्षण लघु एक भयकातर!
क्या न मानव-सभ्यता ही भूमिजा पावन?
क्या न इसको क़ैद में डाले हुए रावण?
क्या न बँधता जा रहा पर सेतु रामेश्वर?
स्वर्णलंका और अणु के अस्त्र की माया,
दर्पमति लंकेश फिर सब विश्व पर छाया;
किंतु नवयुग-रविउदय से हारते निशिचर!
मूल मानव जूझता फिर मनुज दानव से,
प्रगति का जयघोष उठता रक्त-अर्णव से!
क्रांति के ज्वालामुखी ही शांति के निर्झर!
चिर पुनीता है हमारी सभ्यता सीता,
पर न उसका भी परीक्षाकाल है बीता!
नियति-शासित हैं यहाँ जगदंब-जगदीश्वर!
नियतिगति भ्रू-भंगिमा है जिस अगोचर की,
वही सीमाबद्ध अपरंपार होकर भी!
आज वह संघर्षरत कण में बसा आकर!

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