ये कविता नहीं सच्ची कथा है,
आम आदमी की व्यथा है।
आमदनी जब आवश्यकता
से कम होती है,
मन में चिन्ता बेचैनी
स्वाभाविक होती है।
रुकने लगते हैं आवश्यक
से आवश्यक काम,
छिन जाता है तन-मन
का सारा आराम।
आज के काम कल
पर टाले जाते हैं,
वायदे के नित नए
शपथ लिए जाते हैं।
पीना पड़ता है नित
अपमानों के घूँट,
पद-प्रतिष्ठा जाती है
सब टूट।
अपराधी की तरह
छिपता और छिपाता है,
मिल जाए कोई परिचित
तो बहुत लजाता है।
सगे-सम्बन्धी बात करने से कतराते हैं,
अपने भी ताने सुनाते हैं।
पड़ोसी हँसी उड़ाते हैं
ज़रूरत के नित बढ़ते पहाड़
दिल का दर्द बढ़ाते हैं।
शुरू रहता है हर वक़्त
आत्म चिन्तनऔर मन्थन
कहाँ से, कैसे आए
आवश्यकता के लिए ज़रूरी धन?
पर नहीं होता इतना आसान
खोज पाना इस समस्या का समाधान।
भूषण इस स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है?
जवाब में हर कोई बस मौन है।
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