साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
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दिल्ली, दिल्ली
1957
आँगन-आँगन जारी धूप मेरे घर भी आरी धूप क्या जाने क्यूँ जलती है सदियों से बिचारी धूप किस के घर तू ठहरेगी तू तो है बंजारी धूप अब तो जिस्म पिघलते हैं जारी जा अब जारी धूप छुप गई काले बादल में मौसम से जब हारी धूप हो जाती है सर्द कभी और कभी चिंगारी धूप आज बहुत है अँधियारा चुपके से आ जारी धूप
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