आँखों से जब ये ख़्वाब सुनहरे उतर गए (ग़ज़ल)

आँखों से जब ये ख़्वाब सुनहरे उतर गए,
हम दिल में अपने और भी गहरे उतर गए।

साँपों ने मन की बीन को काटा है इस तरह,
थे उस के पास जितने भी लहरे उतर गए।

लाए हैं वो ही आग के मोती बटोर कर,
जो आँसुओं की बर्फ़ में गहरे उतर गए।

लोगों के दर्द-ओ-ग़म भी सियासत के ज़ेहन में,
झंडों से एक दिन को ही फहरे उतर गए।

पहरे पे सब ही चोर हैं ये तब पता चला,
आँखों से जब ये नींद के पहरे उतर गए।

हम जब तटों के पास रहे डूबते रहे,
जब जब भँवर के बीच में ठहरे उतर गए।

नारों की सीढ़ियों को लगा कर चढ़े जो लोग,
हो कर उन्हीं की चोट से बहरे उतर गए।

जिस दिन से मेरे दिल में 'कुँवर' बस गए हैं आप,
दुनिया के मुझ पे जितने थे पहरे उतर गए।


रचनाकार : कुँअर बेचैन
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