आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं (ग़ज़ल)

आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं,
तो भी हम दिल को मार रखते हैं।

बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो,
दिलक-ए-बे-क़रार रखते हैं।

ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है,
हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं।

न निगह ने पयाम ने वा'दा,
नाम को हम भी यार रखते हैं।

हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो,
लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं।

चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर,
बस यही ए'तिबार रखते हैं।

फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़,
हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं।


रचनाकार : मीर तक़ी 'मीर'
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