आषाढ़ की साँझ (कविता)

अग्नि को नहीं
हमने बारिशों को साक्षी मानकर खाई थी क़समें

वादियों में बरसती ये बौराई बूँदें
स्वप्न को चुभतीं
किसी चटके हुए वादे की किरचें हैं
तुम्हारी नींदों से निर्दोष लहू रिसता है

तुम
रात के तीजे पहर प्रेम त्याग देते हो
प्रदोष व्रत के लहसुन-प्याज की तरह

प्रिय!
तुम्हारे शहर में आषाढ़ की सुबहें
संन्यासिन हैं

मैं आँखों के जल में
अपने लहूलुहान स्वप्न घोल कर महावर बनाती हूँ
जो एड़ियाँ घिस दूँ आकाश के पश्चिमी घाट पर
धरती पर नदियाँ सुर्ख़ हो जाती हैं

सबसे कड़ी दुपहरों में मैंने प्रेम धारण किया है
पृथ्वी के अंतिम धर्म की तरह

मेरे शहर में
आषाढ़ की साँझें सुहागिन हैं


रचनाकार : बाबुषा कोहली
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