जीवन में अधूरापन
हमेशा ही रहता है,
मिलता रहे चाहे जितना
मगर अधूरा ही लगता है।
क्यों हमें संतोष जो नहीं होते
कभी पूरा होने का आभास नहीं होता,
हमारी ख़्वाहिशें हमें दलदल से
निकलने देना ही नहीं चाहतीं।
हम भी दिन-रात दो-दो चार में
कभी दो-दो पाँच के फेर में
उलझे जकड़े फँसे रहते हैं,
अधूरेपन के मकड़जाल से
निकलना भी तो नहीं चाहते,
क्योंकि हम तो अधूरेपन को
अपनी तक़दीर जो मान बैठे हैं,
अधूरेपन को अपनी नियत मान
जीते और मर जाते हैं।

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