धुंधलका होते ही
बनने लगती विरह की कविताएँ
एक छवि तैर जाती है ऑंखों में
दिनभर की बेचैनी, आक्रोश, तपन
केंद्रित हो जाती है–
उस विरही कविताओं में।
मानस में बनने लगती,
अनेक पंक्तियाँ।
उठने लगते असंख्य विचार,
उस दुर्दिन के।
लिखने बैठता तो,
कविताएँ भूल जाती।
शब्द ओझल हो जाते।
विचार उलझ के रह जाते;
और यादें अधूरी रह जातीं।
फिर होता है–
एक घोर अँधेरा!
आँखें केंद्रित हो जाती,
किसी अदृश्य बिंदु पर।
मन थक के सो जाता है,
जैसा हुआ ही नहीं हो।
शांत, चिंतारहित।

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