ऐ घटा (कविता)

ज़रूरत पर नहिं शक्ल कभी तुम दिखलाते हो,
ज़रूरत नहिं जब, ज़बरदस्ती नभ घिर आते हो।
जाने क्यों निज बल पर इतना इतराते हो।।

जब प्यासी हो धरा, बूँद-बूँद को तरसाते हो,
खेत-खलिहान जलमग्न, बरसने लग जाते हो।
लगे सूखने नदि, नाले, नौले, फ़सलें, न तरस खाते हो।।

अब चाहिए धूप, तो रोज़ क्यों बरस रहे हो?
घर, घाट, फल, फ़सल बहा फिर हरष रहे हो?
बता ख़ता ऐ घटा! जो जग विनास तुम तरस रहे हो।।

बता ऐ घटा! देखा क्या तूने जो जग पर है घटा?
बता क्या ख़ता बगुले की, जिसने तेरा नाम नित रटा?
क्यों तूने उस पर से अपनी नज़र ली हटा?

घर-आँगन सब ध्वस्त, सड़कें डूबी जनसम्पर्क भी कटा।
शर्म कर ऐ घटा! तू क्या फटा।
अब जन-मानस का तुझसे दिल ही फटा।।

ऐसी भी क्या खुन्दक तुझको जन-मानस से?
जो अविरल ही बरस रहा, सब रहा तू बहा।
जिससे जीवन आस, वही अब मृत्यु-मार्ग महा।।

ऊब गया अब मैं तो तेरी इस बे-मौसम, बे-मतलब बरसा से,
जग-विनास की तेरी बेझा इस मृग-तृषा से।
छोड़ बरसना अनावश्यक, तनिक अनुकम्पा भी दरषा।।

ऐ घटा! जग ज़रूरत को जान, समय पहचान,
छोड़ गरजना, चमकना, फटना, बे-मतलब का बरसना।
छोड़ निर्दोष जगत को डसना औ फिर हँसना।।


लेखन तिथि : 27 जुलाई, 2021
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