सही कहती थी अम्मा (मेरी माँ)–
यूँ बात-बात पर ग़ुस्सा ठीक नहीं।
इक दिन तो बढ़नी से पीटा गया।
अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी नहीं चलती,
झुकना और सहना पड़ता है,
ये ज़िम्मेदारन है, मजबूरन नहीं,
समझदारी है, कमज़ोरी नहीं,
बाहर निकलोगे तब पता चलेगा,
दुनिया कैसी है? और ज़िंदगी क्या है?
कहीं ठौर नहीं मिलेगा ऐसी करनी पर,
तुम हमेशा सही कैसे रह सकते हो,
और दूसरा ग़लत,
तुझे ग्लानि नहीं होती अपनी ग़लतियों पर
कि तू झाँकता ही नहीं अपने अन्दर,
पानी की तरह रहो, पत्थर की तरह अकड़े मत रहो,
सीख नहीं पावोगे ज़िंदगी में,
धीरे चलो पर चलते रहो,
प्यार बाँटोगे तो प्यार मिलेगा,
सरल होने पर चीज़ें सरल लगती हैं,
क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम रटा दिया चन्द छणों में।
सहज ही नहीं दुर्गम भी है ये ज़िंदगी,
कुछ सपने लिए इन आँखों में,
उम्मीद-ए-चिराग़ जलाए हुए,
अब निकल पड़े जीवन पथ पर,
जीवन उद्देश्य निभाने को।
कहीं काली सड़क, कहीं पथरीली राहें,
तो कहीं रेतों का समन्दर मिला,
कभी ख़ूबसूरती का लिबाश ओढ़ आई ज़िंदगी,
तो कभी ख़ौफ़नाक दर्द मिला।
बहु लोग मिले, बहु प्यार मिला,
सुख-दुख से भरा संसार मिला।
कभी मैं उसका (ज़िंदगी का) तो कभी वो मेरी लगी,
कभी दिन ही दिन तो कभी खाली रात लगी।
फूलों के साथ-साथ हमने
काँटों से भी दोस्ती कर ली।
पर ये सवाल आता रहा,
ज़हन मे हरदम–
ऐ ज़िंदगी! तू सहज
या दुर्गम।
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