अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता (ग़ज़ल)

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता

बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता

मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता
न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता

हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर
अगर उन में से कोई बा-वफ़ा होता तो क्या होता

रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता

ख़ुदा को भूल कर इंसान के दिल का ये आलम है
ये आईना अगर सूरत-नुमा होता तो क्या होता

अगर दम भर भी मिट जाती ख़लिश ख़ार-ए-तमन्ना की
दिल-ए-हसरत-तलब को अपनी हस्ती से गिला होता


  • विषय : -  
यह पृष्ठ 416 बार देखा गया है
×

अगली रचना

न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें