अहंकार (कविता)

गगन के हृदय में अंकित सितारा
अपनी यश-गाथा का विस्तार कर रहा,
इतराकर सूरज से बैर किया है
सूर्य की लालिमा मात्र से कहार रहा।

अपनी सुंदर यौवन से पुष्प
भूमि का जो तिरस्कार किया,
एक पवन के झोंके ने उसे
सौ टुकड़ों का आकार दिया।

अपनी तेज़ धार से जल
भय का जो संचार किया,
बाँध बनाकर मनुष्य ने वहाँ
जल का उसका अधिकार लिया।

अपने ऊँचे कद का पर्वत
गगन को जो ललकार रहा,
धारा ने अपनी करवट से ही
उस पर तीव्र प्रहार किया।

अपनी गौरव हो या योग्यता
का जिसने अहंकार किया,
प्रकृति ने अपने समय में
उसका सदा तिरस्कार किया।


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