अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ (ग़ज़ल)

अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ,
ऐसे ज़िद्दी हैं परिंदे कि उड़ा भी न सकूँ।

फूँक डालूँगा किसी रोज़ मैं दिल की दुनिया,
ये तिरा ख़त तो नहीं है कि जिला भी न सकूँ।

मिरी ग़ैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे,
उस ने इस तरह बुलाया है कि जा भी न सकूँ।

फल तो सब मेरे दरख़्तों के पके हैं लेकिन,
इतनी कमज़ोर हैं शाख़ें कि हिला भी न सकूँ।

इक न इक रोज़ कहीं ढूँड ही लूँगा तुझ को,
ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ।


रचनाकार : राहत इन्दौरी
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