अकेलेपन की गहन निशा में,
अनिमेष
देखता हूँ एक सपना
कि, डूब रहा हूँ गहरी खोह में;
पाताल की गहराइयों में,
धँसता, निष्प्राण काया लिए,
बढ़ता जाता हूँ।
घने अरण्य में,
चीड़ पर टंगी मेरी आत्मा,
याचना कर रही है,
मुक्ति के लिए।
जड़वत शरीर, शिथिल मन;
क्षण प्रतिक्षण मृत्यु के तरफ़,
अग्रसर।
किसी विध्वंस महल के खंडहर में,
भटकती मेरी आत्मा;
हर एक कपाट से निकलती,
आँगन के भयानक स्थान पर;
पुनः लौट आती है।
जैसे ब्रह्माण्ड का कण-कण
शिथिल और बेजान,
समय की गति के समान
हृदय की गति कभी तीव्र;
कभी मंद पड़ जाती है।
मस्तिष्क में ऐसा अन्तर्द्वन्द,
जो चहारदीवारी की दीवारों से टकराती,
मस्तिष्क में असह्य पीड़ा को बढ़ाती,
मृत्यु के समक्ष;
मुझे ला खड़ा कर देती है।
अचानक; बजती फ़ोन की घंटी
औ मेरा श्वेदिक शरीर,
आभाषित करते हैं, कि
कितना अकेला हूँ मैं।
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