अँधेरे मुसाफ़िरख़ाने में (कविता)

मैं नहीं जानता था
कि अँधेरे मुसाफ़िरख़ाने में
जहाँ टार्च की रोशनी में
सिर्फ़ एक तमतमाया हुआ चेहरा दिखता है
इतनी अनासक्त बैरागी आवाज़ें हैं।

कहाँ चले जाते हैं लोग
थोड़ी देर के लिए
आदिम पीड़ाओं की झलक दिखला कर
थोड़ी देर के लिए
आदिम वैराग्य की ख़ुशबू छोड़ कर।

हर बार जब एक नया चेहरा दिखता है
भजन किसी और कोने से आता है
और बैरागी की आवाज़ भी
बदल जाती है
थोड़ी देर के लिए लगता है
कि अँधेरा एक फैला हुआ सुनसान है
जिसमें एक निर्विकार ठहराव
उगी हुई लौ की तरह
ऊपर उठ रहा है
फिर कोई और...
फिर कोई और...

वे लोग जो गाड़ी आने के बाद
सपाट, मुर्दा शक्लें लिए
पहले तो आग की तरह
इधर उधर दौड़ते हैं
फिर निढाल, गुमसुम सफ़र के लिए
बैठ जाते हैं
क्या ये वही हैं
जो मुसाफ़िरख़ाने में इंतज़ार कर रहे थे
तमतमाए हुए, वीतराग?


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