खोज रहा हूँ ख़ुद को भीतर,
मौन लहर में गूँज समाई।
भाव शिलाएँ चुपचाप खड़ीं,
बूँद-बूँद रसधार बहाई॥
अंतःपुर की जाली झाँके,
स्मृतियों की धूप-सलाई।
छाँव घनी कुछ रहस्य बोए,
संशय की परछाईं आई॥
कल्पनाओं के नभ में उड़ता,
यथार्थ कहीं पर मौन खड़ा।
एक छोर पर प्रश्न सजे हैं,
उत्तर का दीपक कौन जला?
मन के विस्तृत सागर तट पर,
लहरें हैं कुछ मद्धम, कुछ तीव्र।
डूब रही चाहत की कश्ती,
बह निकलीं आकांक्षाएँ जीव॥
सपनों की चादर चीर रहा हूँ,
वेदनाओं के शूल बिछे।
कभी लगा मैं तृप्त बहुत हूँ,
कभी लगा मैं रिक्त बहे॥
भीतर दीपक जलता पाया,
चिंतन की लौ काँप रही।
मैं ही पथ हूँ, मैं ही राही,
मंज़िल मुझमें झाँक रही॥
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