खोता जीवन सुख अपनापन, वह स्वार्थ तिमिर खो जाता है।
कहँ वासन्तिक मधुमास मिलन, पतझड़ अहसास दिलाता है।
भौतिक सुख साधन लिप्त मनुज,अपनापन कहाँ सुहाता है।
बस चकाचौंध मृगतृष्णा फँस, चातुर्य सिद्धि पथ जाता है।
जग दुर्लभ अपनापन रिश्ते, सौहार्द्र स्वयं भरमाता है।
पहचान अभी सम्बन्ध कहाँ, अनुबन्ध स्वार्थ रच जाता है।
छल कपट मोह मिथ्या प्रपञ्च, अभिमान लहर लहराता है।
करुणामय अन्तर्मन स्नेहिल, क्षमा दया लोप हो जाता है।
उन्माद घृणा निन्दा हिंसा, दानव विचार मन भाता है।
कहँ राष्ट्र धर्म सम्प्रीति वतन, बस देश द्रोह उफनाता है।
कहँ अपनापन भारत आँचल, सद्भाव भक्ति मिट जाता है।
दे अपनापन संस्कार मनुज, सदाचार मनुजता लाता है।
लज्जा श्रद्धा शुभसोच मनन, संस्कृति परिवार दिलाता है।
सुनहरी भोर चहुँ प्रगति किरण, सोपान लक्ष्य पथ जाता है।
अंकुर पल्लवित पुष्पित द्रुम, सुरभित पादप मुस्काता है।
अपनापन आभास हृदय, समुदार स्वजन महकाता है।
नत विनत शील गुण कर्म मुदित, सद्नीति रीति पथ जाता है।
वसुधैव कुटुम्बकम् अन्तर्मन, परमार्थ कर्म उद्गाता है।
हो अखिल विश्व विश्वास मधुर, इतिहास साक्ष्य रच जाता है।
आलोक स्नेह आनंद अपर, सब में अपनापन लाता है।
बनते रिश्ते अपनापन जन, निर्माण राष्ट्र कर जाता है।
दे मातृशक्ति सम्मान सहज, ऋणमुक्त स्वयं हो जाता है।
भ्रातृत्व भाव समरसता मन, अपनत्व सरसता लाता है।
हो भक्ति सनातन अपनापन, स्वर्गिक ख़ुशियाँ यश दाता है।
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