अपने घर में ही अजनबी की तरह (ग़ज़ल)

अपने घर में ही अजनबी की तरह,
मैं सुराही में इक नदी की तरह।

किस से हारा मैं ये मिरे अंदर,
कौन रहता है ब्रूसली की तरह।

उस की सोचो में मैं उतरता हूँ,
चाँद पर पहले आदमी की तरह।

अपनी तन्हाइयों में रखता है,
मुझ को इक शख़्स डाइरी की तरह।

मैं ने उस को छुपा के रक्खा है,
ब्लैक आउट में रौशनी की तरह।

टूटे बुत रात भर जगाते हैं,
सुख परेशाँ है ग़ज़नवी की तरह।

बर्फ़ गिरती है मेरे चेहरे पर,
उस की यादें हैं जनवरी की तरह।

वक़्त सा है अनंत इक चेहरा,
और मैं रेत की घड़ी की तरह।


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