अपनों का साथ (कविता)

साथ अगर हो अपनों का, ये सौग़ातें क्या कम हैं,
ख़ुशियाँ दूनीं हो जातीं, साथ में तुम और हम हैं।

रिश्ता लम्बा रखना हो तो, सच ही सच तुम बोलो,
दौलत आनी-जानी है, रिश्तों को ना तुम तोलो।

साथ न अपना कोई हो, दौलत अरबों-खरबों की,
क्या होगा उस दौलत का, संगत ना हो अपनों की।

चाह नहीं उस रिश्ते की, दौलत सम्मान कसौटी हो,
बंगला, गाड़ी सबकुछ हो, अपनों पर न लँगोटी हो।

दर्द मिलें चाहे कितने भी, हँसकर उनको सहता हूँ,
मेरे अपने साथ रहें, धन मद में ना बहता हूँ।

समदर्शी अरमान यही, अपने साथ रहें हरदम,
कुछ भी साथ ना जाए तेरे, जाता हूँ बुध्दं शरणं।


लेखन तिथि : 30 नवम्बर, 2020
यह पृष्ठ 125 बार देखा गया है
×

अगली रचना

हिन्दी मेरी पहचान


पिछली रचना

रुक ना जाना तू कहीं हार के
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें