असिद्ध की व्यथा (कविता)

नदियाँ, दो-दो अपार
बहतीं विपरीत छोर
कब तक मैं दोनों धाराओं में साथ बहूँ
ओ मेरे सूत्रधार!

नौकाएँ दो भारी
अलग दिशाओं जातीं
कब तक मैं दोनों को एक साथ खेता रहूँ—
एक देह की पतवार—

दो-दो दरवाज़े हैं
अलग-अलग—क्षितिजों में
कब तक मैं दोनों की देहरियाँ लाँघा करूँ
ओ असिद्ध,
एक साथ

छोटी-सी मेरी कथा
छोटा-सा घटना-क्रम
हवा के सँवर-सा पलव्यापी यह इतिहास
टूटे हुए असंबद्ध टुकड़ों में बाँट दिया
तुमने
ओ अदृश्य, विरोधाभास

अधभोगे
अधडूबे
रहे सभी कथा-खंड
दूरी से छूकर ही निकल गईं घटनाएँ
भीतर बहुत सूखा रहा
हुआ नहीं सराबोर
देह भी न भीगी कभी इस प्रकार
कि साँसें न समा पाएँ

क्यों सारी दुनिया की
मनचीती बातें सभी
लगती रहीं मलीन
क्यों मन की दूर तहों में बैठा रहा, अडिग
ऊसर एक उदासीन
हँसने का नाट्य किया
ख़ुशियों का रूप धरा
कोरी आदत को सचाई माना मैंने
मेरे अनबींधे, बुझे।
आसक्तिहीन प्यार!
एक ओर तर्क है
एक ओर संस्कार
दोनों तूफ़ानों का
दुहरा है अंधकार
किसको मैं छोड़ूँ,
किसको स्वीकार करूँ
ओ मेरी आत्मा में ठहरे हुए इंतज़ार!


यह पृष्ठ 281 बार देखा गया है
×

अगली रचना

देह की दूरियाँ


पिछली रचना

रुक कर जाती हुई रात
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें