आत्मविस्मृति (कविता)

हम उस राह के हैं पथिक!
जाते जिस पथ से,
वहाँ तेरे पाँवों की आहट सुनाई देती!
तेरी छनकती पायल;
खनकती चूड़ियाँ;
कानों की झूमती बाली,
औ कमर की करधनी;
जैसे भुलावे में डाल देती मुझे।
तब!
उस पथ से गुज़रना,
असम्भव सा हो जाता;
मेरे लिए
धीरे-धीरे
डूबने लगता,
तेरे प्यार की गहराई में।
होता;
एक अपूर्व एहसास
तेरा होने का; तुझे छूने का,
शिथिल हो जाते;
मेरे पाँव,
जैसे जड़ हो गए हों
तेरी प्रतीक्षा में
एक साथ चलने के लिए
जीवन में;
जीवन भर के लिए।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 29 जनवरी, 2019
यह पृष्ठ 248 बार देखा गया है
×

अगली रचना

सिर्फ़! मैं ही कहूँगा?


पिछली रचना

पर! कोई बात नहीं
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें