बारिश (कविता)

हवा में उमस थी
और अपनी गति से जा रही थी लोकल
डिब्बों में भीड़ बहुत अधिक नहीं थी
तो कम भी नहीं थी

कुछ लोग पढ़ रहे थे अख़बार
कुछ सुन रहे थे गाने
कुछ लोग दरवाज़े पर खड़े
मज़ा ले रहे थे बाहर की बयार का
एकाएक जाने क्या हुआ
बिजली कड़की
काला हो गया आसमान और मेघों ने घेर लिया
लोकल को
बीच राह सरेआम

न तो बंद हुईं खिड़कियाँ
न दरवाज़े
न मची कही भगदड़
हवा में पीछे की ओर झुक कर
जैसे मेघों का
स्वागत करती है ज्वार और बाजरा की डिभियाँ
स्वागत किया लोगों ने बाँहें लहराकर
मौसम की पहली बारिश का

नम हो गई हवा
लोकल और मेघों के बीच
चलते-चलते चलती रही बतकही
जाने कहाँ-कहाँ की
समुद्र की हवा की
ऊँचे आसमान की
दुनिया की जहान की

और जब लोकल ने प्यार से
मेघों को झिड़क कर कहा
कितना बदल गया है तू,
भूल गया समय पर आना भी
चुप रह गए मेघ

अब क्या बताएँ
रात-दिन
एक ही पटरी पर चलने वाली इस लोकल को
कि क्यों देर हुई आने में
किसने रोका था उनका रास्ता


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