बात भी क्या है!
कुत्ते की टेढ़ी पूँछ।
या कहूँ कि
कुंडली मारे किसी सर्प का दंश।
जिसका विष शरीर में नहीं;
अंतः में फैलता है।
और वह व्यक्ति
मरता नहीं,
प्रतिदिन मरता है।
बात में गाँठ ही क्यों?
जो कभी खुलती ही नहीं
या
उस दलदल की गहराई,
जिसमें एक पैर निकालो,
तो दूसरा जा फँसता है।
बात अभिधा में भी हो सकती है!
लक्षणा को तो देव ने भी उत्तम नहीं माना।
शमशेर ने कहा था–
बात बोलेगी!
भेद खोलेगी बात ही!
बात कभी बोली?
भेद खोली कभी बात?
बात तो मूक बधिर हो गई।
जिसे न अब कुछ दिखाई देता;
ना सुनाई ही।
वह तो महाभारत का संजय बन गई।
जो सब कुछ देख सुन के,
धृतराष्ट्र के कान में जोड़ दे।
और वह बैठ मथते रहें
बात को
मथानी की तरह।
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