बदले ज़माने के मंज़र (कविता)

आज चश्म-ओ-अब्र से
वसुंधरा का शृंगार बरसा हैं,
बूढें दरख़्तों की शाख़ों पे भी
जवाँ रुत आई हैं।

बर्क़ सी धड़कनें गुज़री हैं
वसुंधरा के आँचल में,
स्याह घटाओं से
धरती के नूर पे रंगत आई हैं।

बारिश की बूँदों में
कच्छे पहनें वो मैराथन दौड़,
वो नन्हें पैरों का हुजूम में रक़्स,
उन दिनों की याद आई हैं।

ऐप्स से खेल रहा बचपन,
मोबाईल में ये डूबे अक्सर,
बदले ज़माने के ये मंज़र,
नैनों में अश्रु की धार आई हैं।

वो जो ख़ुतूत बंद था
मिरा लड़कपन समाए,
मुद्दतों बाद खोला तो,
हर हर्फ़ में नमी आई हैं।

भेज रहा हूँ बादल
मिरी आँखों की नरमाई,
नहीं रहा अब बचपन,
ये कौनसी नस्ल उगाई है।

'कर्मवीर' आज फिर क्रिकेट
खेलने की उमंग जागी हैं,
सुना हैं 5G वालें मोबाईल में,
क्रिकेट की नई ऐप आई हैं।


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