बहुरूपिया (कविता)

दुनिया दूषती है
हँसती है
उँगलियाँ उठा
कहती है...
कहकहे कसती है—
‘राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-भबड़ आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन...
अ-खा-हा-हा
ही-ही’
मर्द रे मर्द!
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो—पहरावे—ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष!
बहुरूपिया!


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