(1)
बनारस तो मैं कई बार गया
इस बार भी गया बनारस
बनारस से अच्छा लगा मुझे सारनाथ
क्योंकि मुझे स्कूल की किताबों में
बनारस नहीं सारनाथ के बारे में बताया गया था
इन दिनों ही मुझे पढ़ाया गया था कबीर पाठ
कबीर की छाती में रामानंद का पाँव
आज भी आँखों में लहरतारा वैसा का वैसा है
वापसी में जब मैं लौट रहा था
रास्ते में दिखाई दिया था लहरतारा
मन में बहुत हुआ था कि
कुछ देर रुक कर बैठ जाऊँ और
मिटा लूँ मन का फेर-फार
लेकिन हार बैठा साथियों के साथ से
मैं जाना चाहता था मगहर
वे दिखाना चाहते थे मुझे काशी विश्वनाथ
मुझे वह दिखाना चाहते थे वह मस्जिद
जो बाबा विश्वनाथ की पीठ में
बक़ौल उनके लदी पड़ रही थी
उन्हें यह मालूम नहीं था कि
मैं बाबा विश्वनाथ को बचपन से ही देख रहा था
माँ और पिता की अतृप्तता में
जो पूरी उमर इन्हीं में लगे रह कर भी
रह गए थे ख़ाली खुक्क।
(2)
जब सबके सब इस सबमें लगे थे
मेरा मन गंगा में बने घाटों की लंबी क़तार में
पतंग की तरह घूम-घूम कर उड़ रहा था
इस समय तो मुझे सब नहीं
कुछेक नाम ही याद हैं
मणिकर्णिका का नाम इसलिए याद है
जहाँ एक पूरी तरह से जल कर राख नहीं हो पाती थी कि
दूसरी आकर उसी के ऊपर धर जाती थी
मोक्ष पाने का यह ढंग देख कर
जी भीतर से ऐसा घिन-घिना उठा कि
मैं भाग कर इतनी दूर खड़ा हुआ
जहाँ से घाट क्या गंगा भी न दिखाई दे
अस्सी घाट तो इसलिए याद रह गया था कि
बचपन में किताबों में पढ़ा था कि
अस्सी घाट में गुज़रे थे बाबा तुलसी
जो सबसे पहले मेरी ज़बान में
ऐसे उतरे थे कि अब तक
वैसे के वैसे ही धरे हैं और
हरिश्चंद घाट इसलिए याद रह गया था कि
दुनिया के सबसे बड़े कफ़न खसोट के नाम पर था
तमाम चीज़ें इतिहास और परंपरा की
इसी तरह के घटियापे के कारण याद रह जाती है
जिन्हें शताब्दियों तक दुहराते चले जाते हैं हम।
(3)
पहली बार जब बनारस गया था तो
लगा था वाक़ई यह बनारस है
जहाँ हिंदी का एक नामवर आलोचक
साठ वर्ष का हुआ था
मुझे लगा कि मुझे जाना चाहिए
न जाने पर हो सकता है कि वह
कुछ कम का न मान लिया जाए
मैं यह देख कर चकित था कि
साठ के नामवर सिंह की षष्ठी मनाने के लिए
सबके सब सत्तर और अस्सी के लोग शामिल हैं
जिन्हें शायद अब याद नहीं रह गया कि
वे कब साठ के हुए थे
मेरे साथ बाँदा से एक पचपन साला टु इन वन गए थे
वह जब तक वहाँ रहे
अपने अगले पाँच साल में फँसे रहे
यह ससुरा साठ साल का नशा भी अजीब होता है
किसी को कम किसी को ज़्यादा
कुछ न कुछ होता सबको है
बनारस से तो बहुत लोग भागे और
बहुत लोग भगाए गए
जो लोग गए वह लौट कर नहीं आए बनारस
पर यह आलोचक इस मामले में
जीवट वाला तो है ही
यह जितनी बार बनारस से भगाया गया
उतनी ही बार दूने वेग से तोड़ता
बंद सीलन भरे चौखट दरवाज़े
ग़ज़नवी की तरह आता रहा बनारस।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें