बरसात (कविता)

एक झल्ला पानी क्या गिरा
कीचड़ से कतराती गली
आँगन में आ गई
देहरी पर पाँव रखते सहमी
और मुस्कुरा कर पानी-पानी होती
नंग-धड़ंग बच्चों की सूरत
दौड़ गई बाखल से बाज़ार तक,
साँप-सी बल खाती
छोड़ गई कीचड़ की केंचुल।

ओ भैया बादल
देखो ना
मैं तो एक इज़्ज़तदार आदमी हूँ।
अबकी बार
यदि तुम ज़ोर से बरस गए
मुई गली मेरे घर में घुस आएगी
और फिर
टूटी चारपाई और ख़ाली कनस्तरों में क़ैद
मेरी इज़्ज़त
चौराहे पर तैरेगी।

तब मैं नंग-धड़ंग बच्चा
कितनी देर रो सकता हूँ
बरसते पानी में।

गली पहले तो ऐसी नहीं थी
मेरे घर के सामने से निकलती थी
चुपचाप आँखें झुकाए
पर जब से मेरा नया पड़ोसी गोदाम आया है
पहले उसने गली में छेड़ा
फिर एक दिन
रास्ता रोक कर खड़ा हो गया,
और तभी से मोहल्ले में दबी-दबी आवाज़ें हैं
कि गली के पेट में
गोदाम पल रहा है
गली मुझसे कह रही थी
जिस दिन बादल साथ देंगे
वह गोदाम से बदला ज़रूर लेगी।
बादल बरसेंगे और उमड़ती हुई ग़ुस्सैल गली
गोदाम में जा घुसेगी
और गोदाम की ड्यौढ़ी जितना ऊँचा
मेरा घर
यक़ीनन डूब जाएगा,
यही तो होता आया है
जब-जब गलियों ने
गोदामों से बदला लिया है।
छोटी-छोटी ड्यौढ़ियाँ
उनकी अवैध संतानें पालती आई हैं
युगों और शताब्दियों से
निःशब्द।


रचनाकार : शरद बिलाैरे
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