बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं (ग़ज़ल)

बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
लेकिन अपने घर में आ कर सोया मैं

जब भी थकन महसूस हुई है रस्ते की
बूढ़े-बरगद के साए में बैठा मैं

क्या देखा था आख़िर मेरी आँखों ने
चलते चलते रस्ते में क्यूँ ठहरा मैं

जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
हो जाता हूँ अपने क़द से ऊँचा मैं

ठंडे मौसम से भी मैं जल जाता हूँ
सूखी बारिश में भी अक्सर भीगा मैं

जब जब बच्चे बूढ़ी बातें करते हैं
यूँ लगता है देख रहा हूँ सपना मैं

सारे मंज़र सूने सूने लगते हैं
कैसी बस्ती में 'ताबिश' आ पहुँचा मैं


रचनाकार : ज़फ़र ताबिश
यह पृष्ठ 208 बार देखा गया है
×

अगली रचना

गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर


पिछली रचना

ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें