बेचारे कृषक (कविता)

वे नहीं जानते लड़ना
अपने हक़ के लिए।
वे वंचित रहते हैं
तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद।
उन्हें मयस्सर नहीं होती
मूलभूत आवश्यक चीज़ें भी
ऊपर से उनका ख़ून चूसती है
ये शोषणकारी व्यवस्था और बेतहाशा महँगाई।
जिस दिन वे सीख जाएँगे लड़ना,
अपने हक़ के लिए।
वे बना लेंगे मशाल
अपने चूल्हे की लकड़ी को
और निकल पड़ेंगे सड़कों पर
इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा देकर।
उस दिन उनकी आवाज़ से थर-थर काँपेगी
राजमहलों की दीवारें,
हिल जाएँगे तख़्त और पलट जाएँगी व्यवस्थाएँ।


लेखन तिथि : 2019
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