बीच ही सफ़र पाँव रोक ना मुसाफ़िर (गीत)

बीच ही सफ़र पाँव रोक ना मुसाफ़िर,
आगे है सुहानी तेरी राह रेI कहने को जड़ है, ना चले रे हिमालय,
बहने को नदिया में गले रे हिमालय,
अरे, जड़ के पिघलने का नाम ही है चलना तो,
कैसी तेरी उलझन, कैसा तेरा भारी मन,
कैसी ये थकन कैसी आह रे।
बीच ही सफ़र...

उथले में आँसुओं से खारे हैं रे सागर,
गहरे में मोतियों को धारे हैं रे सागर,
अरे गहरे पानी पैठने का नाम ही है चलना तो,
तैरे है क्यों उथले तू, गहरे की भी सुध ले तू,
पाना है तुझे तो अभी थाह रे।
बीच ही सफ़र...

चाँद को बसेरा देने ढले है रे सूरज,
जग को सबेरा देने जले है रे सूरज,
अरे, ढलने औ' जलने का नाम ही है चलना तो,
कैसे रे पराया कोई, सब में समाया वो ही,
रख ना किसी से कोई डाह रे।
बीच ही सफ़र...

फूल और शूल का ही मेल है रे बगिया,
धूल में ही खिलने का खेल है रे बगिया,
अरे, बिंधके भी खिलने का नाम ही है चलना तो,
तू भी रख ऐसा पग, कह उठे सारा जग,
वाह रे मुसाफ़िर! वाह रे!!
बीच ही सफ़र...


लेखन तिथि : अक्टूबर, 1995
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घटना विशेष से संबंध: कानपुर के कवि मित्र प्रसिद्ध हास्य-कवि श्री ओमनारायण शुक्ल ने निजी गोष्ठी में अपना एक लोक-गीत सुनाया था जिसके बोल थे "मीठी मीठी बतियाँ बनाओ ना बरेठा भोरहु चले के हुई घाट रे" आगे गीत के भाव आध्यात्मिकता लिए हुए थे जो याद नहीं थे। गीत के बोल में बरेठन के दर्द से मैं छटपटा उठा। पूरा गीत पाने के प्रयास में असफल रहने पर मन में आया कि स्वांत: सुखाय गुनगुनाने के लिए उसी लय में ख़ुद से ही एक गीत लिखी जाए परन्तु उसमें बरेठन के नैराश्य की जगह आशा की झलक मिले। मेरी छटपटाहट से जन्मा यह गीत।
– श्याम सुन्दर अग्रवाल
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