बेटियाँ (कविता)

बेटियाँ शब्द एक प्रतीक है,
अहसास है मर्यादा का,
गहन अपनत्व का,
माता के ममत्व का,
पिता के दायित्व का।
ये बेटियाँ गंगा की पावन धार सी,
बाबुल के स्वक्षन्द आँगन में,
रुनझुन पायल की झंकार बन,
सुकोमल पद्म पुष्प की भाँति,
पल्लवित पल प्रतिपल पनपती हैं।
सँवरती है निखरती हैं,
माता-पिता की डोर थाम बढ़ती हैं
भाई के साथ बचपने की,
अल्हड़ सी शैतानियाँ,
उसकी नटखट सी नादानियाँ,
भैया के नखरे, शरारतें,
इन सबको पावन प्यार का
प्रारूप देती ये बेटियाँ,
समाज मे सर्वदा कमज़ोर,
समझी जाने वाली,
रक्षा की पात्र मानी जाने वाली,
ये बेटियाँ ही तो हैं जो
पल प्रतिपल सबका ख़्याल रखती हैं,
बेइंतहा प्यार करती हैं।
पापा की दवाई हो या पानी देना,
माँ की कंघी हो या फिर
काम मे हाथ बटाते रहना
या फिर भाई का बिखराया सामान
क़रीने से लगाना,
सब कुछ वही तो सम्हालती है।
कम पैसों मे काम चला
अपना बचा हुआ पॉकेट मनी तक लौटा देतीं है ये बेटियाँ,
सचमुच कितना ग़ज़ब ढाती हैं ये बेटियाँ...
फिर एक दिन सबको रुला दूर
ससुराल चली जाती है ये बेटियाँ।
अपने रक्त सृजित रिश्ते छोड़,
पराए लड़के को प्रियतम मान,
निछावर हो जाती हैं ये बेटियाँ।
दूसरे के परिवार को स्वीकार
अपनत्व लुटाती हैं ये बेटियाँ।
कितने भी विपरीत हालात हों,
मगर फ़ोन से ही सही दूर होकर भी,
मम्मी-पापा को उनका रूटीन
याद दिलातीं हैं ये बेटियाँ।
सच तो ये है कि समाज में
हाशिये पर देखी जाने वाली
ये कमज़ोर कही जाने वाली बेटियाँ,
वास्तव मे परिवार की सबसे
मज़बूत डोर होती हैं ये बेटियाँ।


लेखन तिथि : 10 सितम्बर, 2019
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सुभाष चन्द्र बोस


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