भाग्य (कविता)

हे मानुष!
भाग्य को
कोस कर,
विकास को
अवरोध मत कर।
श्रम बिंदु से
लिख दे ललाट को,
क्योंकि तू
देव नहीं है नर।
इंसान के
सोच को,
भाग्य पर नहीं,
मन में
बदलाव लाइए।
कर्म ही
श्रेष्ठ है,
यूँ मानकर,
हर उच्च काम अपनाइए।
माथे की लकीर ललाट को
श्रम बिंदु से
देख ले बदलकर
भाग्य को
कोष कर,
विकास को
अवरोध मत कर।
अगर विफल हुए
तो मत बैठो
माथा पकड़कर,
आख़िरी साँस
तक प्रयास कर,
तू आदमी है
किसी मेहनत से मत डर।
अपनी खोई
हिम्मत से,
भाग्य को
जगा कर,
तो देख ले।
ये क्यों भूल
जाता है कि,
तू मानव है मेहनत को
क़बूल कर।
लोग देखते
ही रह जाएँगे,
तू आगे बढ़
विजय ध्वज
पकड़ मज़बूत कर।
भाग्य को
कोस कर
विकास को
अवरोध मत कर।
भाग्य को
जो कोसा
करते है,
जो रहते है
निठल्ले असाह।
तू इंसान की
औलाद है
इतनी मेहनत कर,
की लोग लगा दे,
तुझे आह।
अपनी श्रम सरिता से,
भाग्य को मोड़ दे,
एक इतिहास बनाकर।
भाग्य को
कोस कर
विकास को
अवरोध मत कर।


लेखन तिथि : दिसम्बर, 2022
यह पृष्ठ 167 बार देखा गया है
×

अगली रचना

मूल चुका ना पाओगे


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें