भला लगता है (कविता)

डाकिये का दीख जाना
मुस्कुराते हुए आना
भला लगता है।

सोचता हूँ कुछ देर
बैठाल कर बातें करूँ
सामने सिगरेट, बीड़ी,
चाय की प्याली धरूँ।

कसे घोड़े को कहाँ फ़ुरसत?
‘मेहरबानी आपकी’ कहते हुए
चिट्ठियाँ आगे बढ़ाना
भला लगता है।

नौकरी ने इस क़दर
बाँधा हुआ है आदमी
वक़्त के पाबंद को ही
वक़्त की रहती कमी।

इन कमेरे सधे हाथों से
द्वार पर संपर्क के स्वर में
साइकिल का टनटनाना
भला लगता है।


रचनाकार : रमेश रंजक
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