भारत-श्री (कविता)

जय जय जगमगित जोति, भारत भुवि श्री उदोति
कोटि चंद मंद होत, जग-उजासिनी
निरखत उपजत विनोद, उमगत आनँद-पयोद
सज्जन-गन-मन-कमोद-वन-विकासिनी
विद्याऽमृत मयूख, पीवत छकि जात भूख
उलहत उर ज्ञान-रूख, सुख-प्रकासिनी
करि करि भारत विहार, अद्भुत रंग रूपि धारि
संपदा-अधार, अब युरूप-वासिनी
स्फूर्जित नख-कांति-रेख, चरन-अरुनिमा विसेख
झलकनि पलकनि निमेख, भानु-भासिनी
अंचल चंचलित रंग, झलमल-झलमलित अंग
सुखमा तरलित तरंग, चारु-हासिनी
मंजुल-मनि-बंध-चोल, मौक्तिक लर हार लोल
लटकत लोलक अमोल, काम-शासिनी
उन्नत अति उरज-ऊप, बिलखत लखि विविध भूप
रति-अवनति-कर-अनूप-रूप-रासिनी
नंदन-नंदन-विलास, बरसत आनंद-रासि
यूरप-त्रय-ताप-नासि-हिय-हुलासिनी
भारत सहि चिर वियोग, आरत गत-राग-भोग
श्रीधर सुधि भेजि तासु सोग-नासिनी


रचनाकार : श्रीधर पाठक
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